Saturday 16 April 2011

आँखों में अटका था बस एक ही सपना


पहनी
मोची से सिलवाई चप्पल
कि दे सके
तेरे पैरों को जूते का आराम
फटी कमीज़ तो चकती लगा ली
ताकि शर्ट तुम्हारी सिल सके
पंचर जुड़ी साइकिल पर चलता रहा
टूटी गद्दी पर
बाँध कपड़ा काम चलाता रहा
ताकि खरीद सके
वो पुरानी मोटर साइकिल तुम्हारे लिए
तागी थी जिस धागे से रजाई
उनकी उम्र पूरी हुई
रुई भी खिसककर किनारे हुई
ठंडी रजाई में सिकुड़ता रहा
कि गर्मी तुझ तक पहुँचती रहे

जब भी जला चूल्हा
तेरी ही ख्वाहिशें पकीं
उसने खाया तो बस जीने के लिए
जीवन भर की जमा पूँजी
और कमाई नेकनीयती
अर्पित कर
तुझ को समाज में एक जगह दिलाई
पंख लगे और तू उड़ने लगा
ऊँचा उठा तो
ये न देखा
कि तेरे पैर उनके कन्धों पर हैं
उनके चाल की सीवन उधड गई
तेरी रफ़्तार बढती रही
सहारे को हाथ बढाया
तुमने लाठी पकड़ा दी
उनकी धुँधली आँखों से
ओझल हो गया
वो घोली खटिया पर लेटे
धागे से बँधी ऐनक सँभालते
तेरे लौटने की राह देखते रहे
अंतिम यात्रा तक
आँखों में अटका था
बस एक ही सपना
साबुत चप्पल, नई कमीज़ और एक साइकिल।

3 comments:

  1. जब भी जला चूल्हा
    तेरी ही ख्वाहिशें पकीं

    तू उड़ने लगा
    ऊँचा उठा तो
    ये न देखा
    कि तेरे पैर उनके कन्धों पर हैं

    अंतिम यात्रा तक
    आँखों में अटका था
    बस एक ही सपना
    साबुत चप्पल, नई कमीज़ और एक साइकिल।

    रचना जी पता नहीं कितनी आँखों में ऐसे सपने अटके रह जाते हैं और ज़िंदगी भर बच्चों के सपनों की परवाज़ को पंख देने के लिए ना जाने कितने लोगों के ऐसे जमीनी सपने भी अधूरे रह जाते हैं... अंतिम यात्रा तक /आँखों में अटका था /बस एक ही सपना/साबुत चप्पल, नई कमीज़ और एक साइकिल। ... इस लाइन ने तो आँखों में आँसू ही ला दिए..

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  2. सुंदर और मार्मिक चित्रण ..................जिंदगी की हकीकत |
    बस एक दो वर्तनी की अशुद्धियों नजर आई कृपया सम्पंदन करें |

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