Saturday 16 April 2011

भीगे विश्वास का दर्द

वो चल रही थी पर उसका मन भाग रहा था .धीरे धीरे उसने गति बढा दी वो लगभग दौड़ने लगी थी शायद वो अपने मन से आगे निकल जाना चाहती थी उसकी साँस फूलने लगी पसीने की चन्द बूँदें उस के माथे पर चमकने लगी पर फिर भी वो रुकी नहीं पता नहीं वो खुद से भाग रही थी या कुछ आवाजों से ................

जब से वो अर्डमोर आई थी उस ने सुबह टहलने का नियम सा बना लिया था। अपने घर से निकल कर वालमार्ट (अमेरिका की एक दुकान )तक अपने आई पौड पर गाने सुनते हुए जाना उस को बहुत अच्छा लगता था .सूरज का पीला प्रकाश जब उस के बदन को छूता था तो एक अजीब सी ऊर्जा वो अपने में महसूस करती थी. सूरज के निकलने के साथ ही चिड़ियों का चहचहाना भी बढ़ जाता ऐसा लगता मानो सूर्य  की मध्यम किरणों ने उनको हलके से सहला के जगा दिया हो .जैसे उसकी माँ जगाती थी प्रकृति से उस को प्रारंभ से ही प्यार था पर जब से अमेरिका आई थी पढाई और उसके बाद नौकरी की तलाश में उस को कभी फुर्सत ही नहीं मिली .साइंटिस्ट के पद पर जब से यहाँ आई है वो मौसम से रोज मिलती है ,हवा उसके बाल सहलाती है चिड़ियाँ गीत सुनती है और पेड़ों से झड़े फू,ल और पत्तियाँ  शबनम में नहाकर उस के आने की राह देखते हैं .

जब उसे लगा कि अब वो नहीं दौड़ पायेगी तो पार्क में लगी एक बेंच पर बैठ गई .वो पूरा पसीने से भीग चुकी थी उसने जींस से रुमाल निकाली धानी रंग के इस रुमाल के कोने में बहुत सुंदर फूल बना था उसने फूल पर हाथ फेरा माँ ने कितने प्यार से इसको काढ़ा था पर आज के दिन उसको न कुछ सोचने का मन कर रहा था और न ही मौसम का कोई भी रंग आकर्षित कर रहा था ......... .अभी दो दिन पहले वो कितनी खुश थी शुक्रवार की रात से ही समय मानो कट ही नहीं रहा था इंतजार का समय बहुत भारी होता है शायद इसी लिए बहुत धीरे बीतता है ,लैब से आने के बाद से ही वो कामों में लगी थी धुले कपडे पहाड़ की तरह अचल खड़े थे ,उसकी अलमारी उस को मुँह चिढ़ा रही थी और बेसिन में बर्तन बातें कर रहे थे. फिर अभी खाना भी बनाना था .उस के हाथ यन्त्रवत् चल रहे थे ,कपड़े तह कर के रखते और अलमारी सही करते करते रात के १२ बज गए थे ,अभी बर्तन धोना बाकी था ।वो डिश वाशर में बर्तन कम ही धुलती थी पर आज वो बहुत थक गई थी और उस को भूख भी लग गई थी अतः उसने बर्तन डिशवाशर में डाल दिया .और खुद मैगी खा कर  बिस्तर पर आ गई .पर नींद मानो आँखों में आने से इंकार कर रही थी मन भी कहाँ शांत था बस शारीर ही थकन का जमा नहीं उतार पा रहा था .ये सब बैचेनी उस को इस लिए थी की कल माँ आ रही थी .पाँच साल पहले जब वो यहाँ आ रही थी माँ उस को गले लगा कितना रोयीं थी उनकी वो हलकी गुलाबी साड़ी और उस पर बने नीले फ़ूल आज भी उसकी आँखों की खिड़की में टँगे थे.माँ को गहरे रंग बहुत पसंद थे पर पिता जी की मौत के बाद माँ ने चटकीले रंगों में सफ़ेद रंग मिला उनको हल्का कर लिया था और अब यही हलके रंग इनकी अलमारी में सिसकते हुए समां गए थे..उस दिन से पहले घर में सब कुछ ठीक था .माँ सुबह घर में संस्कार बोती.खिड़कियाँ खोल पीली नर्म धूप को आमंत्रित करती जब तक मै और पापा उठते घर बातें कर रहा होता और उस के कोने कोने में पवित्रता आसन लिए बैठी होती .मै जब प्रसाद के लिए हाथ बढाती मेरे हाथों पर एक हलकी चपत लगते "कहती पहले मुँह तो साफ कर ले".माँ के हाथों में जादू था जो भी बनाती बहुत स्वादिष्ट बनाती .मैने कभी कभी माँ को पापा से नाराज भी देखा था पर कारण क्या होता पता न चलता कुछ घंटों में ही वो दोनो फिर घुल मिल कर बातें करने लगते पर उस दिन ......"सताक्षी देख तेरे पिता जी को क्या हुआ है"- माँ चीख रही थी मै भाग कर  उनके पास पहुँची तो पापा अजीब अजीब साँसे ले रहे थे  ।माँ बदहवासी की हालत में पड़ोस के सुधांशु  अंकल को बुलाने भागी .मैने पापा को सीधा किया  । उनके मुह से झाग निकल रहा था वो कुछ कहना चाहते थे .पर आवाज कुछ साफ नहीं थी वो बार बार बोलने की कोशिश कर रहे थे इतने में माँ आ गईं साथ में सुधांशु  अंकल भी थे  ।
"मयंक आप घबराइए नहीं सब ठीक हो जायेगा"- माँ ने कहा और आंचल से उनका मुँह पोछने लगीं -"कितनी बार कहा की शराब न पियें पर मेरी सुनता कौन है "-माँ बडबड़ाती जा रहीं थी और रोती जा रहीं थी  ।सुधांशु  अंकल की सहायता से उन्होंने पापा को कार में लिटाया । पापा बार बार मेरा हाथ पकड़ रहे थे  ।कार में लेटते समय उन्होंने जिस निराश निगाह से मुझे देखा आज भी वो निगाहें मेरे मन में गडी हुई -सी महसूस होती हैं .माँ लौटी तो सब कुछ ख़त्म हो चुका था.अब न घर बातें करता था ,न सूरज घर आता था और न ही संस्कार  घर में दिखते थे  ।बस घायल आवाज और सन्नाटे की फुसफुसाहट पसरी रहती . ये सब सोचते सोचते वो कब सो गई पता ही न चला .उस की नींद खुली तो ७ बज चुके थे माँ को लेने हवाई अड्डे जाना था .आर्डमोर से वहाँ     पहुँचने में करीब १ घंटा ४० मिनट लगते हैं अब क्या करूँ- सताक्षी सोच रही थी ,क्योंकि प्लेन ९.०० बजे आने वाला था .मरी नींद का क्या करूँ इसका अपनी आप को कोसते हुए सताक्षी जल्दी जल्दी तैयार होने लगी .जब तक वो घर से निकली ७ ३० हो चुके थे .अभी माँ के लिए फूल भी लेने थे जल्दी ही कार हवा से बातें करने लगी लाल गुलाब ले कर  जब कार .हाइवे पर पहुँची ८ बज चुके थे .गति सीमा ७० किमी  थी तो सताक्षी ने स्पीड सेट कर गाड़ी क्रूस पर डाल दी .

पिता जी के जाने के बाद रिश्तेदारों ने एक एक कर नाता तोड़ लिया .माँ को कुछ भी देने से इंकार कर दिया .माँ सुबह बाहर जाती और जब लौटती मायूसी की गहरी रेखा उस के माथे पर दिखती .परिवार में लोग माँ पर तरह तरह के लांछन लगाते.मुझे ज्यादा समझ में नहीं आता पर जितना आता बुरा बहुत लगता .पापा की जगह माँ को काम मिल गयाथा .अँधेरे में दिए की रौशनी ही बहुत होती है  ।दिन भर काम करने के बाद माँ मुझे भी खुश रखने की कोशिश करती .बहारों का मौसम जब मुझपर आने लगा लोगों की गिद्ध नजर मुझको छेड़ने लगीं॥माँ को अब मेरी चिंता रहने लगी थी ।उस दिन तो हद ही हो गई,जब मेरे चचेरे भाई ने मुझे दबोचने की कोशिश की।माँ ने चाचा चाची से शिकायत कि पर चाची ने माँ को उल्टा सीधा कहना शुरू कर दिया और मुझे भी ताने देने लगीचाची ने कहा -क्या करेगी पेड़ में फल लगेगा तो पत्थर तो उछलेंगे ही .कई दिन सोचने के बाद माँ ने मुझे यहाँ     अमेरिका पढ़ने भेज दिया .

तेज हॉर्न से उसकी तंद्रा टूटी तो देखा लाल बत्ती हरी हो चुकी थी.उसने जल्दी से गाड़ी आगे बढा दी . उसकी निगाह बगल की सीट पर रखे फूलों के गुलदस्ते पर पड़ी जिसमे सुर्ख गुलाब मुस्कुरा राहे थे.उसने एक बार फूलों को ऐसे सहलाया ,जैसे माँ उसके माथे को सहलाती थी. .पास रखी पानी की बोतल को उठा कर उसने मुँह से लगा लिया और सारा पानी एक साँस में पी गई ..आज डैलस में गर्मी कुछ ज्यादा ही थी उसने ए सी बढ़ा दिया.

जब वो एयर पोर्ट पहुंची तो ९ बज कर  २० मिनट हो चुके थे. कार पार्क कर के वो जल्दी से अंदर भागी. वहाँ     देखा तो फलाइट ९०१ ,३० मिनट लेट थी .उफ्फ्फ .............उसने चैन की साँस ली .पेट में उठती भूख की लहरों का अभी ध्यान आया ,सुबह से एयर पोर्ट पहुँचने की जद्दोजहद में उसे कुछ खाने का समय ही नहीं मिला .समय बिताने के लिए और अपनी जठराग्नि को शान्त करने के लिए उसने कॉफी ली और धीरे धीरे उनकी चुस्कियाँ  लेने लगी . कॉफी के एक एक घूँट में मानो वो एक एक पल पी रही थी .तभी अनाउंस हुआ की फ़्लाइट नंबर ९०१ आने को है ।दिल की घडकन बहुत तेज होने लगी थी करीब २० मिनट बाद माँ आती दिखी माँ ने आज भी वही नीले बूटों वाली पिंक साड़ी पहनी हुई थी सताक्षी दौड़ कर  माँ से लिपट गई .माँ को कस कर  इस तरह पकड़े थी कहीं फिर माँ चली न जाएँ .माँ आप का सामान कहाँ है " सुधांशु  अंकल ला रहे हैं क्या???.......वो भी आयें है तुम ने बताया नहीं ."अरे बेटा लास्ट समय में उनका प्रोग्राम बना .ऑफिस के काम से उनको न्यूयार्क जाना है २ दिन बाद चले जाएँगे ". इतने में अंकल सामान लेकर आ गये ."हेल्लो अंकल कैसे हैं?" .संक्षिप्त सा औपचारिक प्रश्न किया था सताक्षी ने ."ठीक हूँ बेटा "अंकल ने मुस्कुरा कर  कहा आप तो बहुत बड़ी हो गईं है ". सताक्षी. ने कोई उत्तर नहीं दिया .
" माँ मेरे कठहल का अचार ,सिरका और अमावट लाई हो ना
"सब लाई हूँ बेटा ,पर सब यहीं पूछ लोगी या घर भी ले चलेगी " और मम्मी कहकर वो फिर से माँ से लिपट गई .
"इतनी बड़ी हो गई पर बचपना नहीं गया ".कह कर माँ ने सताक्षी के सर पर हलकी सी चपत लगाई.
आर्डमोर के रास्ते में माँ उसको पूरे मोहल्ले का हाल बताती रही .कुछ लोगों को तो वो जानती भी नहीं थी फिर भी सुनती रही  ।माँ का बोलना उस को बहुत अच्छा लग रहा था पाँच साल वो इस आवाज के बिना वो कैसे रही ??घर में घुसते ही माँ ने कहा ,"अरे सत तूने घर तो बहुत अच्छा रखा है साफ सुथरा .याद है अपने घर में कितना सामान फैलाया करती थी ".
सताक्षी को हँसी आ गई बीता शुक्रवार याद आ गया. बातचीत में कब २ बज गए पता न चला
"माँ कुछ खाओगी "
"नहीं बेटा कुछ नहीं अब बस आराम करना चाहती हूँ और तुम्हारे अंकल भी यही चाहते हैं ".पर सताक्षी को भूख लगी थी उसने अपने लिए सेंडविच बनाया खाकर अंकल का बिस्तर लिविंग रूम में लगा दिया और खुद वो माँ को लेकर बेड रूम में आ गई .माँ की कमर में हाथ डाल वो माँ के साथ लेटी है सताक्षी माँ के साथ हमेशा ऐसे ही सोती थी .

"माँ तुम्हारे आने से आज हर शै बातें कर रही है देखो ये तकिया बता रहा है कि तुम को याद कर कभी कभी मैने इस को कितना भिगोया है .और वो देखो ना माँ मेज पर तुम्हारी तस्वीर कह रही है कि इस को सीने से लगा कर  कितनी रातें जागी हूँ मै और प्यारी कर -कर के इस को कितना तंग किया है .मेज के सामने लगे इस बड़े पेपर को देखो ये कह रहा है कि "मै तो आप के नाम से भरा हूँ "जितनी बार तुम्हारी याद आती थी मै इस पर लिखती थी माँ .माँ मेरी अच्छी माँ ............
रात खाने की मेज पर माँ ने उसकी पसंद की सभी चीजें परोसी थी .जिनमे भारत से लाया कटहल का अचार भी शामिल था ."वाह !क्या स्वाद है मेरी भूख तो आज शांत हुई" .
"हाँ बेटा सच कहा तुम्हारी माँ बहुत अच्छा खाना बनती है अंकल ने माँ की तरफ देख कर  कहा ".
."यदि खाना इतना अच्छा लगा है तो बेटा एक रोटी और लो न ".
"अरे नहीं मैने तो ३ रोटी खा ली है एक कौर और खाया तो फट जाऊँगी ."
"अरे कोई बात नहीं मै सिल दूँगी तू खा ' सभी हँसने लगे।
 माँ बर्तन धोने लगी
"अरे नहीं माँ मै डिश वाशर में डालती हूँ .मैने सारे बर्तन डिशवाशर में डाल कर  नोब घुमा दिया .मशीन ने अपना काम शुरू कर दिया .
"अरे सत वह ये तो कमाल की मशीन है .क्या सब बर्तन साफ हो जायेंगे "
"जी माँ आप स्वयं देख लीजियेगा "
भारत और अमेरिका बीच के समय  के अन्तर के चक्कर में माँ और अंकल को बहुत नींद आ रही थी .अतः सभी ने अपना अपना सोने का ठिकाना पकड़ लिया .थोड़ी हो देर में दोनों सो गए .सताक्षी को नीद नहीं आ रही थी .थोडा सफाई करके और लैब का कुछ अधूरा काम ख़त्म कर जब सताक्षी सोने आई तो रात के १२ बज रहे थे .माँ बहुत गहरी नींद में सो रहीं थी .ऐसा लग रहा था की नींद उनको आगोश में ले कर  खुद सो गई है .माँ को देखते देखते वो भी सो गई .सुबह करीब चार बजे माँ और अंकल के हँसने की आवाज से उस की नींद टूटी .माँ कह रहीं थी अजी थोडा धीरे हँसिये सताक्षी उठ जाय़ेगी.
क्या कहती हो मन वो नहीं उठेगी गहरी नींद में हैं
माँ के लिए मन सम्बोधन सुन कर सताक्षी को बहुत बुरा लगा ; क्योंकि पापा माँ को प्यार से मन बुलाते थे .माँ का नाम मंजरी जो था फिर अचानक अंकल के मुहँ से मयंक अपने पापा का नाम सुन कर वो ध्यान से उनकी बातें सुनने लगी अंकल कह रहे थे -उस दिन यदि मयंक की शराब में हम ने जहर ................सताक्षी को लगा कि एक साथ लाखों बिच्छुओं ने उस को डंक मारा हो .
बेंच पर बैठी सताक्षी अपने बिखरे वजूद को समेटने की कोशिश कर रही थी इधर शब्द और घटनाएँ एक दूसरे से तारतम्य बैठाने की कोशिश कर रहे थे और उधर सताक्षी पतझर के बाद झड़ी पत्तियों -सा असहाय महसूस कर रही थी . पापा के जाने के बाद उसको नहीं लगा पर आज वो खुद को अकेला और अनाथ महसूस कर रही थी। वो बार बार यही कह रही थी -माँ तुम.......... क्यों माँ क्यों ? उसने आँसुओं को टी शर्ट की आस्तीन में सुखाया और माँ के लिए न्यूयार्क का टिकट खरीदने का निश्चय कर वह उठ कर चल दी उसने मुडकर देखा बेंच पर धानी रुमाल पड़ा था ।
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