Saturday 16 April 2011

अनवरत

मै माँगती  हूँ
तुम्हारी सफलता
सूरज के उगने से बुझने तक
करती हूँ
तुम्हारा इंतजार
परछाइयों के डूबने तक
दिल के समंदर में
उठती लहरों को
 रहती हूँ थामे
तुम्हारी आहट तक
खाने में
परोसकर प्यार
निहारती हूँ मुख
 महकते शब्दों के आने तक
समेटती हूँ  घर
बिखेरती  हूँ  सपने
दुलारती  हूँ  फूलों  को
तुम्हारे  सोने  तक
रात  को  खीचकर  
खुद  में  भरती  हूँ
नींद  के शामियाने में
 सोती हूँ जग-जगकर
तुम्हारे उठने तक
इस तरह
पूरी होती है यात्रा
प्रार्थना  से  चिन्तन  तक।
-0-

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