Saturday, 16 April 2011

स्वयं को जानने के लिए

स्वयं को जानने के लिए
हम देखते हैं
बुजुर्गों की तस्वीरें।
रौबदार मूँछे,
घूँघट की मासूम हँसी
और झुर्रियों की दरारों में
हम ढूँढ़ते हैं
अपनी समानताएँ।
संदूक में
फिनायल गोली के साथ रखे
उनके शादी के जोड़े ,
काली पड़ी जरदोजी की साड़ियाँ,
पीली पगड़ी,
पुराने जेवरों की गठरी।

ये चीजें
हमारी धरोहर बन जाती हैं
इनमें महकती हैं
उनकी गाथाएँ
रीतियाँ,
जो सजाती हैं रंगोली
रोपती हैं आँगन में
तुलसी का बीरा
इनको
वो सौंपते हैं
आने वाली पीढ़ी को।
तीज, त्यौहार,रिश्तों के मौसम
अतीत बुनता है,
उस की एक नाजुक सी डोर
सौंपता है
वर्तमान को
हमारे चारों ओर
फैल जाते हैं संस्कार
और हम धनी हो जाते हैं।

वो बताते हैं-
भूख पीढ़ी की
घात अपनों की
सही नहीं जाती
उन्होंने सिखाया
सच के पन्ने भूरे हुए
पर अभी भी धडकते हैं
ये गुनगुनी बातें
सर्द परिस्थितियों में
लिहाफ़ बन जाती हैं।

वो कतरा-कतरा
हममें ढलते हैं
शब्द, संस्कार, आकार
और वसीयत बनकर
वो मरते नहीं, जब देह त्यागते हैं
अंत होता है उनका,
जब यादों के दरख्तों पर
खिलते है बहुत से फूल
पर उनके नाम का
एक भी नहीं
-0-

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