वो अपने घर जा रही थी
ठेले पर जब वो रखी गई तो उसने अपने हाथ पांव पसारे और अंगड़ाई ली.उसक पोर पोर टूट रहा था सूरज की रौशनी में उसकी आँखें खुल नही रही थी .बहुत कोशिश कर के वो अपनी आँख थोडा सा खोलती और फिर बंद कर लेती .फिर खोलती और पुनः बंद कर लेती थी .आज बहुत दिनों बाद उसने इतनी रौशनी देखी थी .धूप की कुछ नर्म किरणे उसके आस पास खेल रही थी एक -दो तो उसके ऊपर भी चढ़ आईं थी l उनकी मखमली गर्माहट उसको बहुत अच्छी लग रही थीl मिच मिचाती आँखों से उसने देखा की उसके आसपास बहुत भीड़ थी l लोग आ - जा रहे हैं कोई बोरा बिछा कर उसपर अपना सामान रख रहा था तो कोई अपनी भट्ठी सुलगा रहा था .एक दुकानदार अपनी दुकान के आगे चंचल धूल को चुप करने की कोशिश में उसपर पानी का छिडकाव कर रहा था ,कोई अपनी दुकान में झाड़ू लगा कर सारा कूड़ा सड़क पर डाल रहा था ये देख उसको अच्छा नहीं लगा .बहुत सी बसे खड़ी थीं कुछ छोटी बस जैसी भी खड़ीं थी (ऑटो ) जो उसने पहले नहीं देखा था .उसको सब कुछ बहुत नया नया सा लग रहा था .पूरा वातावरण ही नए रंग में रंगा था जहाँ तक भी उसकी नजर जाती उसको केवल लोग ही दिखाई दे रहे थे जब आखिरी बार उसने देखा था तो इतनी भीड़ नही थी .लोगों का पहनावा भी दूसरा था कुछ लोग तो कान पर हाथ रख कर बोले जा रहे थे वो भोली ये समझ नहीं पा रही थी की आखिर ये व्यक्ति अकेले ही क्यों बोले जा रहा है ? इतना शोर भी नही था .आज तो इस शोर से बचने के लिए वो बार बार अपने कानो पर हाथ रख लेती थी .पर दूसरी तरफ उसको ये सब बहुत अच्छा भी लग रहा था .हवा की ये खुशबु उसके अंदर एक अजीब सी ताजगी भर रही थी .वो इस कुरकुरी हवा को अपने अंदर भर लेना चाहती थी अतः गहरी गहरी सी साँस ले रही थी ..न जाने कितने दिनों के बाद उसको इन मतवाली हवाओं ने छुआ था .अभी वो अपनी आज़ादी का जश्न मना ही रही थी कि "ऐ सुन ,ऐ सुन न " इस आवाज ने उसको चौंका दिया .ठेले पर इधर उधर उसने आँखें घुमायीं देखा की एक 'अश्लील से नाम ' वाली उसको बुला रही थी .वो सोचने लगती है की कितने मान सम्मान और कितने प्यार से उसको बनाया गया था कितनी मेहनत से उसमे एक एक शब्द भरे गए थे और आज वो किनके बीच पड़ी है अपनी भूरी पड़ी काया को उसने थोडा समेटने की कोशिश की तो उसको महसूस हुआ की उसके सीने पर एक बिल्ला लगा है और उस पर लिखा था एक दाम...उफ़ आज मेरी ये कीमत लगाई गई है.......... .
"क्या हुआ रे" फिर वही आवाज आई .
"कुछ नही कहो क्यों पुकारा है "?उसने कहा
"" बहुत देर से देख रही हूँ कि तू जब से आई है अंगड़ाई ले रही हो घूप को पी रही है सब कुछ बहुत अजीब निगाहों से देख रही .काहे को "?अश्लील नाम वाली ने कहा
कितनी भ्रष्ट भाषा है इसकी कैसे रे रे कह कर बात कर रही .पर देखा जाये तो गलती इसकी नही है इसका नाम ही ऐसा है .....वो सोचने लगी
"फिर खो गई तू "
वो बात नहीं करना चाहती पर सोचने लगी की शायद ज़माना बदल गया है ,शायद लोगों को इस जैसी की ही आदद्त है .हमारा समय बीत सा गया है अब जब इनके बीच हूँ तो बात तो करनी ही होगी वो बोली
"क्या कहूँ आपसे! मै बहुत दिनों से उस सीलन भरी अलमारी में रह रही हूँ जहाँ चार के रहने की जगह में आठ को ठूंस ठूंस कर भरा गया था पूरा बदन अकड गया था और दीमक जहाँ तहां गुदगुदी करते रहते पर मै हिल भी न सकती थी महीनो हो जाते थे कोई भुला भटका ही उधर आता था .न जाने कितने दशकों से मैने उस घर के बाहर कदम नही रखा था अब तो आलम ये है की मुझ में क्या क्या है मै खुद भी भूल चुकी हूँ .धूल मेरे फेफड़ों में कुछ इस तरह भर गई है की आज खुली हवा में साँस लेना अजीब लग रहा है.कल कुछ लालची हाथों ने मुझे और मुझ जैसी कई और को उठाया और ठेले के इस मालिक को बेच दिया .मै आज उस लालची व्यक्ति का धन्यवाद करती हूँ जिसके कारण मुझे बाहर की दुनिया देखने को मिली है .अब मुझे वही खरीदेगा जो सच में मुझे चाहता होगा .मुझे प्रेम से अपने हाथों में ले कर मेरा अक्षर अक्षर पढ़ेगा .मेरी आत्मा पुनः जीवित हो जाएगी . जानती हो ,यहाँ आज मै बिक जाउँगी और वहां कल हमारे घर की नीलामी होगी जिसपर लिखा है "सरकारी पुस्तकालय ".उस किताब ने देखा उस अश्लील नाम वाली के आँखों में आँसूं थे ..........उस अश्लील नाम वाली ने कहा जानती हो मुझमे लिखे शब्दों से मुझे घिन आती थी और इन चित्रों देख कर मेरी आँखें शर्म से झुक जाती थी पर आज तुम्हारी कहानी सुनने के बाद लग रहा ही की मेरी हालत इतनी बुरी नहीं है .कम लागत में छप जाती हूँ हाथों हाथ बिक जाती हूँ छुप के पढ़ी जाती हूँ ,खुले आम बेचीं जाती हूँ हमारी मांग बहुत ज्यादा रहती है .मै मानती हूँ की मेरे अन्दर भ्रष्ट भाषा भरी है जो समाज के मानसिक स्तर को गिरती है और उसको पथभर्ष्ट करती है पर क्या करूँ जो बिकता है वही बनता है अभी वो बाते कर ही रही थी कोई आया और उस अश्लील नाम वाली को खरीद के ले गया .देखते ही देखते उस जैसी अश्लील नामों वाली बहुत सी किताबें बिक गई .
शाम होने को थी सूरज अपनी दुकान बढ़ने की तैयारी कर रहा था .और उधर तारे और चाँद तैयारी हो रहे थे क्योंकी सूरज के जाते ही उनको अपनी अपनी गद्दी संभालनी थी पर उस किताब किसीने छुआ तक नही .वो किताब थोडा उदास और मायूस होने लगी थी क्या मुझको पढने वाला कोई नहीं ?क्या मै इस समय के लिए उपयुक्त नही हूँ वो अपने होने पर विचार कर ही रही थी के , तभी दो पवित्र से हाथों ने उसको उठाया .और अपने साथ ले चले .वो खुश थी उसे एक नया घर जो मिल गया .आज वो अपने घर जा रही थी l
ठेले पर जब वो रखी गई तो उसने अपने हाथ पांव पसारे और अंगड़ाई ली.उसक पोर पोर टूट रहा था सूरज की रौशनी में उसकी आँखें खुल नही रही थी .बहुत कोशिश कर के वो अपनी आँख थोडा सा खोलती और फिर बंद कर लेती .फिर खोलती और पुनः बंद कर लेती थी .आज बहुत दिनों बाद उसने इतनी रौशनी देखी थी .धूप की कुछ नर्म किरणे उसके आस पास खेल रही थी एक -दो तो उसके ऊपर भी चढ़ आईं थी l उनकी मखमली गर्माहट उसको बहुत अच्छी लग रही थीl मिच मिचाती आँखों से उसने देखा की उसके आसपास बहुत भीड़ थी l लोग आ - जा रहे हैं कोई बोरा बिछा कर उसपर अपना सामान रख रहा था तो कोई अपनी भट्ठी सुलगा रहा था .एक दुकानदार अपनी दुकान के आगे चंचल धूल को चुप करने की कोशिश में उसपर पानी का छिडकाव कर रहा था ,कोई अपनी दुकान में झाड़ू लगा कर सारा कूड़ा सड़क पर डाल रहा था ये देख उसको अच्छा नहीं लगा .बहुत सी बसे खड़ी थीं कुछ छोटी बस जैसी भी खड़ीं थी (ऑटो ) जो उसने पहले नहीं देखा था .उसको सब कुछ बहुत नया नया सा लग रहा था .पूरा वातावरण ही नए रंग में रंगा था जहाँ तक भी उसकी नजर जाती उसको केवल लोग ही दिखाई दे रहे थे जब आखिरी बार उसने देखा था तो इतनी भीड़ नही थी .लोगों का पहनावा भी दूसरा था कुछ लोग तो कान पर हाथ रख कर बोले जा रहे थे वो भोली ये समझ नहीं पा रही थी की आखिर ये व्यक्ति अकेले ही क्यों बोले जा रहा है ? इतना शोर भी नही था .आज तो इस शोर से बचने के लिए वो बार बार अपने कानो पर हाथ रख लेती थी .पर दूसरी तरफ उसको ये सब बहुत अच्छा भी लग रहा था .हवा की ये खुशबु उसके अंदर एक अजीब सी ताजगी भर रही थी .वो इस कुरकुरी हवा को अपने अंदर भर लेना चाहती थी अतः गहरी गहरी सी साँस ले रही थी ..न जाने कितने दिनों के बाद उसको इन मतवाली हवाओं ने छुआ था .अभी वो अपनी आज़ादी का जश्न मना ही रही थी कि "ऐ सुन ,ऐ सुन न " इस आवाज ने उसको चौंका दिया .ठेले पर इधर उधर उसने आँखें घुमायीं देखा की एक 'अश्लील से नाम ' वाली उसको बुला रही थी .वो सोचने लगती है की कितने मान सम्मान और कितने प्यार से उसको बनाया गया था कितनी मेहनत से उसमे एक एक शब्द भरे गए थे और आज वो किनके बीच पड़ी है अपनी भूरी पड़ी काया को उसने थोडा समेटने की कोशिश की तो उसको महसूस हुआ की उसके सीने पर एक बिल्ला लगा है और उस पर लिखा था एक दाम...उफ़ आज मेरी ये कीमत लगाई गई है.......... .
"क्या हुआ रे" फिर वही आवाज आई .
"कुछ नही कहो क्यों पुकारा है "?उसने कहा
"" बहुत देर से देख रही हूँ कि तू जब से आई है अंगड़ाई ले रही हो घूप को पी रही है सब कुछ बहुत अजीब निगाहों से देख रही .काहे को "?अश्लील नाम वाली ने कहा
कितनी भ्रष्ट भाषा है इसकी कैसे रे रे कह कर बात कर रही .पर देखा जाये तो गलती इसकी नही है इसका नाम ही ऐसा है .....वो सोचने लगी
"फिर खो गई तू "
वो बात नहीं करना चाहती पर सोचने लगी की शायद ज़माना बदल गया है ,शायद लोगों को इस जैसी की ही आदद्त है .हमारा समय बीत सा गया है अब जब इनके बीच हूँ तो बात तो करनी ही होगी वो बोली
"क्या कहूँ आपसे! मै बहुत दिनों से उस सीलन भरी अलमारी में रह रही हूँ जहाँ चार के रहने की जगह में आठ को ठूंस ठूंस कर भरा गया था पूरा बदन अकड गया था और दीमक जहाँ तहां गुदगुदी करते रहते पर मै हिल भी न सकती थी महीनो हो जाते थे कोई भुला भटका ही उधर आता था .न जाने कितने दशकों से मैने उस घर के बाहर कदम नही रखा था अब तो आलम ये है की मुझ में क्या क्या है मै खुद भी भूल चुकी हूँ .धूल मेरे फेफड़ों में कुछ इस तरह भर गई है की आज खुली हवा में साँस लेना अजीब लग रहा है.कल कुछ लालची हाथों ने मुझे और मुझ जैसी कई और को उठाया और ठेले के इस मालिक को बेच दिया .मै आज उस लालची व्यक्ति का धन्यवाद करती हूँ जिसके कारण मुझे बाहर की दुनिया देखने को मिली है .अब मुझे वही खरीदेगा जो सच में मुझे चाहता होगा .मुझे प्रेम से अपने हाथों में ले कर मेरा अक्षर अक्षर पढ़ेगा .मेरी आत्मा पुनः जीवित हो जाएगी . जानती हो ,यहाँ आज मै बिक जाउँगी और वहां कल हमारे घर की नीलामी होगी जिसपर लिखा है "सरकारी पुस्तकालय ".उस किताब ने देखा उस अश्लील नाम वाली के आँखों में आँसूं थे ..........उस अश्लील नाम वाली ने कहा जानती हो मुझमे लिखे शब्दों से मुझे घिन आती थी और इन चित्रों देख कर मेरी आँखें शर्म से झुक जाती थी पर आज तुम्हारी कहानी सुनने के बाद लग रहा ही की मेरी हालत इतनी बुरी नहीं है .कम लागत में छप जाती हूँ हाथों हाथ बिक जाती हूँ छुप के पढ़ी जाती हूँ ,खुले आम बेचीं जाती हूँ हमारी मांग बहुत ज्यादा रहती है .मै मानती हूँ की मेरे अन्दर भ्रष्ट भाषा भरी है जो समाज के मानसिक स्तर को गिरती है और उसको पथभर्ष्ट करती है पर क्या करूँ जो बिकता है वही बनता है अभी वो बाते कर ही रही थी कोई आया और उस अश्लील नाम वाली को खरीद के ले गया .देखते ही देखते उस जैसी अश्लील नामों वाली बहुत सी किताबें बिक गई .
शाम होने को थी सूरज अपनी दुकान बढ़ने की तैयारी कर रहा था .और उधर तारे और चाँद तैयारी हो रहे थे क्योंकी सूरज के जाते ही उनको अपनी अपनी गद्दी संभालनी थी पर उस किताब किसीने छुआ तक नही .वो किताब थोडा उदास और मायूस होने लगी थी क्या मुझको पढने वाला कोई नहीं ?क्या मै इस समय के लिए उपयुक्त नही हूँ वो अपने होने पर विचार कर ही रही थी के , तभी दो पवित्र से हाथों ने उसको उठाया .और अपने साथ ले चले .वो खुश थी उसे एक नया घर जो मिल गया .आज वो अपने घर जा रही थी l
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