Friday, 15 May 2020

मुझे मुखौटे बदलने में मज़ा आता है - विवेक ओबेरॉय

मुझे मुखौटे बदलने में मज़ा आता है - विवेक ओबेरॉय
रचना श्रीवास्तव 


विवेक ओबेरॉय एक अच्छे कलाकार ही नहीं परन्तु एक बहुत ही सहृदय व्यक्ति भी हैं। लोगों का, बच्चों का, और अभी जरुरत मंदों का दर्द उनके ह्रदय से गुजरता है। उनके कष्टों को दूर करने का वह यथाशक्ति प्रयास करते हैं।  पिछले दिनों विवेक से कैलिफ़ोर्निया, अमेरिका में मिलना हुआ. वे "एकल संस्था" के वार्षिकोत्सव में सहायता के लिए आये थे. बड़े ही सहज विवेक, कभी-कभी अपनी चाय भी खुद ही बनाते है, गरम पानी पीते हैं, और उनसे बात करना उतना ही सरल था जितना अपने दोस्तों से रूबरू होना। प्रस्तुत है उसी बातचीत के कुछ अंश-  

आपके पिता भी एक महान अभिनेता है।  जब आप अभिनय में अपने पहले कदम रख रहे थे तो क्या आपके पिता जी ने आपको कोई बात सिखाई थी ?
हाँ, मुझे याद है उन्होंने मुझसे एक बात कही थी, उन्होंने कहा कि आप पहले अपने आपको तैयार करो कि जो आप माँग रहे हैं आप उसके लायक हैं।

आपके अभिनय की बहुत बार प्रशंसा हुई होगी।  आपको अभी तक सबसे अच्छी प्रशंसा क्या मिली है ?
मेरा एक सिद्धांत है, न मैं प्रशंसा को याद रखता हूँ, और न ही बुराईयों को। न ताली, न गाली, मैं किसी भी चीज को याद नहीं रखता।

तो फिल्मों की समीक्षा के बारे में आप क्या कहेंगे ?

मैं कोई समीक्षा पढता ही नहीं हूँ। क्योंकि मैने तो अब फिल्म कर दी। अब चाहे वह अच्छी है या बुरी है, हम कुछ बदल तो नहीं सकते।

आपने  नायक और खलनायक दोनों तरह का अभिनय किये हैं आपको स्वयं कौन सा अभिनय करने में आनन्द आता है ?
मैं एक कलाकार हूँ, मुझे मुखौटे बदलने में मज़ा आता है। अलग-अलग किरदार निभाने में मजा आता है। मैं स्वयं को चुनौती देता हूँ। जब मैने अपने अभिनय का सफर शुरू किया तो लोगों ने कहा कि अरे क्या कोई ऐसे अपनी पहली फिल्म करता है ? (वे अपनी पहली फिल्म कम्पनी की बात कर रहे थे) तुमने मुँह काला कर लिया है और डांस भी नहीं कर रहे हो, कोई डिज़ाइनर कपडे भी नहीं पहने हैं। फटे कपडे पहने हो। फिर जब फिल्म सफल हो गयी तो लोगों को लगा कि अरे वाह यह तरीका भी है। तो फिर सभी कहने लगे अब तुम बस एक्शन फिल्म ही करना। फिर मैंने "साथिया" फिल्म की वह भी सफल हो गयी तो लोग कहने लगे अब तुम बस रोमांटिक फिल्म ही करना। फिर मैने रोड की, उसके बाद कॉमेडी फिल्म मस्ती की, और फिर "कृष ३" में खलनायक का किरदार किया किया, "शूट आउट एट लोखनवाला" में एक गैंस्टर प्रेमी का अभिनय किया। फिर "ओंकारा", "युवा", और पी एम् नरेन्द्र मोदी इत्यादि फिल्मे। कहने का  मतलब ये कि मुझे अलग-अलग किरदार करना अच्छा लगता है।
   
आपको गोल्ड हार्ट अभिनेता कहा जाता है। आपने इतने लोगों की सहायता भी की है। तो दिन की समाप्ति पर जब आप शांति से बैठते होंगे तो आपको एक संतोष का अहसास होता होगा ?  
जी बिलकुल सही कहा आपने। आज कल लोग भौतिकवादी हो गए हैं। उनको लगता है कि पैसे को कहाँ लगाया जाय कि वह दुगना हो जाये। जीवन में पैसे का निवेश सोच समझ कर करना चाहिए। फिल्म ‘कम्पनी’ के लिए मुझको तीन लाख रूपये मिले थे। मैं बहुत प्रसन्न था, सोच रहा था कि इन पैसों का क्या किया जाय, इस पैसे का निवेश कहाँ किया जाय। एक दिन मैं अपने घर से निकल रहा था तो मैने देखा मेरा चौकीदार रो रहा था। मैने पूछा क्या हुआ ? उसने बताया कि उसकी बेटी पूजा जो की मात्र १३ साल की है, उसके दिल में छेद है।  शल्य चिकित्सा के लिए उसके पास पैसे नहीं थे।  मैने  बिना कुछ सोचे वह पैसे जो की मुझे फिल्म से मिले थे मैने अपने चौकीदार को दे दिए, और आज उसकी बेटी स्वस्थ है। वह मेरे जीवन का सबसे अच्छा निवेश था।

विवेक जी आप ने देवी DEVI (Development and Empowerment of Vrindavan Girls’ Initiative)  नाम से एक एनजीओ खोला है इसको खोलने की प्रेरणा आपको कैसे मिली ?
मैं वृंदावन भगवान के दर्शन के लिये गया था। मैने  सोचा भगवान ने तो मुझे सब कुछ दिया है और क्या माँगूँ तो मैने भगवान से सेवा माँगी। इसके बाद मैं मन्दिर से बाहर निकला गाड़ी में बैठा ही था तो एक संत को देखा जिसने धोती, कुर्ता पहना हुआ था उसके पास एक झोला भी था और उसने चोटी भी रखी हुई थी।  वह भारतीय नहीं था। वह मेरे पास आए और बोले विवेक भैया मुझे आपकी सहायता चाहिए। मैने कहा ठीक है, आपको कितने पैसे चाहिए, उसने कहा मुझे पैसे नहीं चाहिए। फिर आपको क्या चाहिए ? उसने कहा यहाँ से थोड़ी दूरी पर कुछ लड़किओं को छोटी सी जगह में बन्धक बना कर रखा गया हैं। उनको गुलामी के लिए और बाल वेश्यावृति के लिए बेच दिया जायेगा। मैं सोचने लगा कि मैं भारत की राजधानी दिल्ली से मात्र २ घंटे की दूरी पर हूँ, और यह २००८ है। मैने कहा यह कैसे संभव है ? क्या यह १९८० की किसी फिल्म की कहानी है। उसने कहा नहीं मुझ पर विश्वास कीजिये। यह जगह इस मन्दिर से १० मिनट की दूरी पर है। मेरे साथ के लोगों ने कहा नहीं सर आप नहीं जा सकते। गलियां बहुत पतली हैं। वहाँ कार नहीं जा सकती है। मैं सोचने लगा क्या करूँ पर मैने मन्दिर में अन्दर प्रार्थना की थी कि मुझे सेवा का अवसर दो। आपको तो पता है भगवान कृष्ण कितनी जल्दी प्रार्थना सुनते हैं। मैं चलके वहाँ गया मैने वहाँ लड़कियों को पाया। वहाँ करीब ३३ लड़कियां थी, जिनको बहुत ही छोटे से कमरे में रखा गया था। हवा आने के लिए टीन  की छत में बस छोटे -छोटे छेद थे। कुछ लड़कियां तो वहाँ हफ्ते भर से थीं। मैं दुःख से भर गया। फिर उन लड़कियों को वहाँ से छुड़ाया, प्रशासन को फ़ोन किया, उन लड़कियों को उनके माता - पिता तक पहुँचाया। उनमे से कुछ लड़कियां तो इतनी छोटी थीं की उनको याद ही नहीं था कि वह कहाँ से आयीं हैं। उस समय ही मैने 'देवी ' की शुरुआत की। मैने इसका नाम "देवी" इसलिए रखा क्यों कि इनमे से बहुत सी लड़कियां जो कुछ भी हुआ उसके लिए स्वयं को दोष दे रहीं थी। वो स्वयं को अपवित्र मान रहीं थीं, क्योंकि उनके साथ दुर्व्यवहार हुआ था। हमने ३० लड़कियों से प्रारम्भ किया था और अभी २२००  लड़कियां हैं, जिनको हमें बचाया और उनके रहने खाने और पढ़ाने की व्यवस्था मुफ्त में की है। इन लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा किया है।और अभी यह लड़कियां बहुत ही अच्छा कर रही हैं। यह संस्था वृन्दावन में है।


किस बात ने आपको एकल संस्था से जुड़ने के लिए प्रेरित किया ?
एकल बच्चों के लिए बहुत अच्छा कार्य कर रहा है।  प्रदीप गोयल जी के साथ मैने मुम्बई में एकल को सहयोग करने के लिए फंडरेजर किया था जो की बहुत सफल रहा। तो प्रदीप जी ने कहा अब तुमको आगे आना होगा, आप को अमेरिका में आना होगा। पिछले तीन चार सालों से वह मुझे बुला रहे थे और मैं आ नहीं पाया। इस बार उन्होंने मुझे तीन चार महीने पहले ही तारीख निश्चित कर ली और कहा इस बार मैं आपको नहीं छोड़ूँगा।  मैने कहा इस बार मैं आपके लिए आऊँगा। यह बहुत ही महान संस्था है और बहुत ही उत्तम कार्य कर रही है।

आपने कैंसर से पीड़ित बच्चों के लिए भी काम किया है उसके बारे में कुछ बताइये।
किसानो के बच्चे, जिनके परिवार गरीबी रेखा से नीचे हैं, जो इलाज का खर्च नहीं उठा सकते हैं, हमको एहसास हुआ कि बिना इलाज  के बहुत से बच्चे मर रहे हैं।  कोई भी उनकी सहायता नहीं कर रहा है। तो हमने इसको बहुत ही छोटे पैमाने पर प्रारम्भ किया था। पर भगवान की कृपा से पिछले १८ सालों में  हमने  करीब २ लाख ५० हजार बच्चों के जीवन को बचाया है। यह कार्य बहुत  ही कठिन था। पर मुझे अपनी  टीम पर बहुत मान है। मेरा एक फाउंडेशन है जिसका नाम है "वन फाउंडेशन" पहले इसको मैने "यशोधरा ओबेरॉय फाउंडेशन" नाम से शुरू किया था, जो कि मेरी माँ  का नाम है। हमने सुनामी के समय बहुत कार्य  किया था। सुनामी आने के २४ घंटे बाद हमने ३ गाँवो को पुनः बनाया था। इसको हमने प्रोजेक्ट होप  कहा था। इसी संस्था के अंतर्गत मैने मुम्बई के कामथीपुरा जगह पर वेश्या वृति में लगी महिलाओं के बच्चों के लिए पढ़ाई और अलग रहने की जगह का बन्दोबस्त किया और इस कार्य को नाम दिया  "सेट ब्यूटीफुल फ्री". बस यही कुछ काम हैं और बहुत से काम हैं जिनको मैं और मेरी संस्था कर रही है.

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