कलाकार अपना यंत्र खुद होता है- शबाना
शबाना आज़मी एक ऐसा नाम जिस ने अभिनय की दुनिया में अपना एक अलग ही मुकाम बनाया है. कलात्मक सिनेमा, व्यवसायिक सिनेमा या फिर स्टेज, हर क्षेत्र में अपने अभिनय की खुशबु बिखेरने वाली शबाना जी जिनको बेस्ट अभिनेत्री के लिए पाँच बार राष्ट्रीय अवार्ड मिल चुका है, इस समय अमेरिका के विभिन्न शहरों में अपने नाटक "बिखरते बिम्ब" के अंग्रेजी रूपांतरण "ब्रोकेन इमेज" को लेकर काफी व्यस्त हैं और उन्हें खूब सराहना मिल रही है, उनसे अन्तरंग बात के अंश- .
आपने और जया जी ने आपकी जन्मदिन पार्टी पर खूब डांस किया और मस्ती की. एक गंभीर शबाना जी के अंदर एक बच्ची शबाना आज भी जिदा है?
मुझे लगता है हर कलाकार के लिए जरुरी है कि वो अपने अन्दर के बच्चे को जिन्दा रखे क्योंकी बच्चे की हर चीज में दिलचस्पी होती है, चीजो को जानने की इक्छा होती है और ये एक कलाकार के लिए बहुत जरुरी है. उसी से उसकी स्वाभाविकता भी बनती है और कला भी निखरती है. एक कलाकार जीवन से ही सीखता है, यदि आप ज़िन्दगी को बच्चे की नज़र से देखेंगे तो वो हमेशा नई लगेगी और उस में उत्सुकता भी बनी रहेगी और उसकी कला में निखार आएगा .
आपका नाटक "ब्रोकेन इमेजेस" परंपरागत नाटक से अलग है-
जी हाँ आपने सही कहा. यही कारण है कि मैने इस प्ले को किया. एक तो गिरीश कर्नार्ड को मै बेहतरीन लेखकों में से एक मानती हूँ. गिरीश कर्नार्ड को हमेशा मुखौटों से बहुत दिलचस्पी रही है. मुखौटों के पीछे का जो असल चेहरा होता है न वो उस को देखते हैं. मुझे ब्रोकेन इमेजेस दो-तीन वजहों से अच्छी लगी. एक तो इसलिए कि ये तकनीकी रूप से चुनौती पूर्ण है. ये सिंगल वुमेन शो है. इस में दो शबनाएं हैं, एक मंजुला जो बड़ी बहन है उसका किरदार करती है और दूसरी छोटी बहन मालिनी का किरदार करती है. जो छोटी बहन है वो आप को मंच पर रूबरू नहीं दिखती वो आप को एक टेलिविज़न स्क्रीन पर नजर आती है. इस को करने के लिए ४४ मिनट का एक ही शौट मुझे देना पड़ा था जो मेरे कैरियर में एक बिलकुल नई बात थी. ऐसा पहले मैने कभी नहीं किया था. मुझे तो उम्मीद नहीं थी कि मैं इस को आसानी से कर पाउगी. हमने स्टूडियो २ दिन का बुक कर के रखा, ये सोच कर कि पता नहीं कितने टेक लगेंगे. मुझे खुद ही हैरानी हुई कि मैने उसको एक टेक मे ही कर लिया और ये एक हैरतअंगेज़ बात थी. दूसरी बात ये कि मंजुला का किरदार यदि स्टेज पर कोई गलती करे तो वो फिक्स इमेज और प्री रिकार्डेड मालिनी जो टी वी पर है वो उसके बचाव के लिए नहीं आ सकती है. आमतौर पर नाटकों में यदि आप कोई गलती करते हैं तो आप के सहयोगी कलाकार आपका बचाव कर सकते है पर यहाँ ऐसा नहीं है. मतलब ये कि प्ले में कोई भी गलती की गुन्जाइश नहीं है, इसीलिए बहुत चुनौती पूर्ण भी है, डर भी लगता है और ज्यादा फोकस भी रहता है.
इस प्ले की मुख्य कहानी क्या है ?
ये दो बहनों की कहानी है. इस में बहनों की प्रतिद्वंदिता और उनकी जलन को दर्शाया गया है. ऊपर से वो दिखाती है कि एक दूसरे को बहुत चाहती है पर जैसे जैसे प्ले आगे बढ़ता है पता चलता है कि ये जो दिख रहा है वो सही नहीं है. अन्दर की बात तो कुछ और ही है. इस में ये समझ नहीं आता कि छोटी बहन से हमदर्दी करें या बड़ी से. जब मैने गिरीश कर्नार्ड से पूछा तो उहोने कहा मेरे पास जवाब नहीं है आप खुद ही जान लीजिये.
इस प्ले के निर्देशक पदमसी जी ने आपकी अम्मीं शौकत आज़मी जी के लिए भी प्ले का निर्देशन किया है. उनके साथ काम करना कितना इमोशनल अनुभव है?
पदमसी की ये बात है कि उन्होंने मेरी अम्मी के साथ ४० साल पहले काम किया था और आज मेरे साथ काम कर रहे है. आज भी वो बहुत लगन और मेहनत से काम करते हैं. उनका बहुत अनुभव है. वो अभिनय और थियटर को बहुत अच्छे तरीके से समझते हैं. कहते हैं कि थियटर उनके लिए ज़िन्दगी से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है तो जब आप ऐसे व्यक्ति के साथ काम करेंगे तो मजा तो आएगा ही.
आपका एक और नाटक है "कैफ़ी और मै". इस में आपने अपनी अम्मी का किरदार निभाया. अपनी माँ के जीवन को जीने का अनुभव कैसा रहा?
"कैफ़ी और मै" उर्दू का प्ले है जो जावेद जी ने लिखा है. मेरी अम्मी शौकत आज़मी की याद के बहुत से हिस्से ले कर और कैफ़ी साहब के मुख्तलिफ इन्टरवियु में से कई हिस्से ले कर, उनको जोड़-जोड़ कर जावेद साहब ने ये प्ले बनाया है. इसमें जावेद साहब मेरेअब्बा कैफ़ी साहब का रोल करते हैं और मै अपनी अम्मी का रोल करती हूँ. इस मै कैफ़ी साहब की शायरी, उनके फिल्म के गाने और उनकी जीवनी- जैसे कैफ़ी साहब और शौकत कैसे मिले, उनका रोमांस फिर उसमे हास्य और राजनीती, फिर उसमे थियटर, ये सब हैं. ये एक ऐसे दो लोगों की कहानी है जिन्होंने जिंदगी बहुत भरपूर तरीके से जी है. ये कहानी आज की नवजवान पीढ़ी के लिए प्रेरणा बन सकती है क्योंकि ये वो लोग है जिन्होंने हिंदुस्तान की आज़ादी की जद्दोजहद में हिस्सा लिया और एक ऐसी ज़िन्दगी का सपना देखा जहाँ सामाजिक न्याय हो. उन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए कला का इस्तेमाल हथियार के तौर पर किया. मेरे लिए ये प्ले नहीं कह सकती हूँ क्योंकि मै खुद को खुशकिस्मत समझती हूँ कि मेरे ऐसे माँ बाप है और इस प्ले के जरिये उनके जीवन के पहलुओं को लोगों के साथ बाँटने का मौका मिला.
इस का अंग्रेजी में तर्जुमा (अनुवाद ) हुआ है और ये अमेरिका में करिकुलम के तौर पर प्रयोग हो रहा है. इस को पढ़ के यहाँ के विद्यार्थी भी लाभ्वान्वित होंगे.
हाँ बिलकुल. इस किताब का तर्जुमा नसरीम रहमान ने किया है जो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से है. अमर्त्य सेन ने कहा है कि ये दो ऐसे इंसानों कि कहानी है जो एक दूसरे से बेपनाह मोहब्बत करते हैं, उसके साथ साथ एक अच्छे समाज का सपना भी देखते हैं और इसको अलग अलग तरीके से पूरा करने कि कोशिश करते हैं, जबकि उनकी प्रतिबद्धता एक है. "अलग-अलग व्यतित्व मगर एक ही सपना, एक ही जज्बा, एक ही उद्देश्य समाज मैं सही बदलाव का". पूरी किताब का सारांश इतने कम शब्दों में अमर्त्य ही कह सकते हैं.
आप एक प्ले को अलग-अलग शहरों और मुल्कों में करती है तो एक ही किरदार को उसी उत्साह उसी भाव के साथ बार-बार करना कितना मुश्किल हैं और कितना आसान?
ज्यादा तर तो कठिन ही होता है क्योंकी बहुत अलग किस्म के अनुशासन की जरुरत होती है. जो कलाकार है वो अपना यंत्र खुद होता है. देखिये जैसे कोई तबला बजाने वाला या सितार बजाने वाला होता है तो वो कितनी कामयाबी से बजा सकते है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि उनकी उगलियों में कितना हुनर है और उनका यंत्र कितनी अच्छी तरह समस्वरित (टीयुंड) है पर जो कलाकार है उसके पास बस उसी का ज़हन और दिल है. उस दिल में कितना अनुभव है, आपने ज़िन्दगी में क्या क्या सीखा है वो सब आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं. जब वो हिस्सा बन जाते हैं तो आप भावनात्मक रूप से समृद्ध होते है और जब ऐसा होता है तो फिर आप इस की खुशबु बिखेर सकते हैं. अपने नए नए किरदारों में इस अनुशासन को रोज़ एक नई तरह से जीने के लिए बहुत जरुरी है कि आप जब काम कर रहे हो तो आप का फोकस पूरी तरह से आपके किरदार पर होना चाहिए. यदि आपका इधर उधर ज़हन भटकने लगा इसलिए कि आप प्ले को कई बार कर चुके हैं तो उसमे एक थकान आ जायेगी और वो दर्शकों को दिखाई देगी और उनको मनोरंजक नहीं लगेगी.
कैफ़ी साहब की कोई नज़्म जो आपको बहुत पसंद हैं हमारे पढने वालों को बताइए-
जी बिलकुल एक है :-------
प्यार का जश्न नई तरह मनाना होगा
गम किसी दिल में सही, गम को मिटाना होगा
एक उनकी एक नज्म है "औरत" जो उन्होंने ६० साल पहले लिखी थी-
ज़िन्दगी ज़हद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्जे हस्ती के लहू कापते आंसू में नहीं
मुड़ने खुले में है निखत कमेगेसू में नहीं
जन्नत एक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आजाद रविश पर मचलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
जावेद जी का कोई शेर जो आप को बहुत पसंद हो
कभी तो इन्सान ज़िन्दगी की करेगा इज्जत
ये एक उम्मीद आज भी दिल में पल रही है मेरे
आपने बीबीसी टीवी के लिए २००६ में "बंगलाटाउन बैन्कवयट" किया था उसका अनुभव कैसा था ?
बहुत अच्छा अनुभव था. उसमें एक बंगलादेशी लड़की की कहानी थी जिसका शौहर बिना उससे पूछे एक नौजवान बीवी घर पर ले आता है. वो अपनी सहेलियों के साथ बाहर जाती है एक पिकनिक के लिए उस पिकनिक पर किस तरह से अपनी परिस्तिथि से जूझती है और किस तरह से उसको ताकत आती है ये हीकहानी थी. उसको कनिका गुप्ता ने लिखा था.
भविष्य में आपकी आने वाली कौन कौन सी फ़िल्में है ?
"मुक्ति", "राजधानी एक्प्रेस" और दीपा मेहता की है "टाईटेनिक वेर्सेज" जो अभी शुरू नहीं हुई है.
आप एक समाज सेविका है अपने देश की समस्याओं से आप अच्छी तरह बाकिफ है. आपको क्या लगता है कि ऐसी कौन सी समस्याएं हैं जिनको दूर कर के अपने देश को और भी आगे बढाया जा सकता है ?
मुझे ऐसा लगता है कि किसी भी देश की प्रगति का मापदंड उसकी इकोनामिक ग्रोथ नहीं हो सकती बल्कि उस देश का मानवीय विकास सबसे जरूरी है जिसमें औरतो का सशक्तिकरण एक बहुत महत्वपूर्ण मापदंड है. हमारे मुल्क में यदि हम शिक्षा और तालीम पर ध्यान दे और विशेष तौर पर लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान दें, उसकी सेहत का ध्यान रखें और सभी के लिए आमदनी का कोई जरिया हो सके, जब ये चीजे होंगी तब सही मायने में हम प्रगति करेंगे. हिदुस्तान की प्रगति दो हिस्सों में बटती जा रही है. गरीब ज्यादा गरीब हो रहा है और अमीर ज्यादा अमीर हो रहा है. गाँधी जी ने हमको सिखाया था कि तब तक प्रगति की बात नहीं कर सकते जब तक कि जो सबसे गरीब इन्सान है उसके आँख का आंसू हम नहीं पोंछ सकते.
शबाना आज़मी एक ऐसा नाम जिस ने अभिनय की दुनिया में अपना एक अलग ही मुकाम बनाया है. कलात्मक सिनेमा, व्यवसायिक सिनेमा या फिर स्टेज, हर क्षेत्र में अपने अभिनय की खुशबु बिखेरने वाली शबाना जी जिनको बेस्ट अभिनेत्री के लिए पाँच बार राष्ट्रीय अवार्ड मिल चुका है, इस समय अमेरिका के विभिन्न शहरों में अपने नाटक "बिखरते बिम्ब" के अंग्रेजी रूपांतरण "ब्रोकेन इमेज" को लेकर काफी व्यस्त हैं और उन्हें खूब सराहना मिल रही है, उनसे अन्तरंग बात के अंश- .
आपने और जया जी ने आपकी जन्मदिन पार्टी पर खूब डांस किया और मस्ती की. एक गंभीर शबाना जी के अंदर एक बच्ची शबाना आज भी जिदा है?
मुझे लगता है हर कलाकार के लिए जरुरी है कि वो अपने अन्दर के बच्चे को जिन्दा रखे क्योंकी बच्चे की हर चीज में दिलचस्पी होती है, चीजो को जानने की इक्छा होती है और ये एक कलाकार के लिए बहुत जरुरी है. उसी से उसकी स्वाभाविकता भी बनती है और कला भी निखरती है. एक कलाकार जीवन से ही सीखता है, यदि आप ज़िन्दगी को बच्चे की नज़र से देखेंगे तो वो हमेशा नई लगेगी और उस में उत्सुकता भी बनी रहेगी और उसकी कला में निखार आएगा .
आपका नाटक "ब्रोकेन इमेजेस" परंपरागत नाटक से अलग है-
जी हाँ आपने सही कहा. यही कारण है कि मैने इस प्ले को किया. एक तो गिरीश कर्नार्ड को मै बेहतरीन लेखकों में से एक मानती हूँ. गिरीश कर्नार्ड को हमेशा मुखौटों से बहुत दिलचस्पी रही है. मुखौटों के पीछे का जो असल चेहरा होता है न वो उस को देखते हैं. मुझे ब्रोकेन इमेजेस दो-तीन वजहों से अच्छी लगी. एक तो इसलिए कि ये तकनीकी रूप से चुनौती पूर्ण है. ये सिंगल वुमेन शो है. इस में दो शबनाएं हैं, एक मंजुला जो बड़ी बहन है उसका किरदार करती है और दूसरी छोटी बहन मालिनी का किरदार करती है. जो छोटी बहन है वो आप को मंच पर रूबरू नहीं दिखती वो आप को एक टेलिविज़न स्क्रीन पर नजर आती है. इस को करने के लिए ४४ मिनट का एक ही शौट मुझे देना पड़ा था जो मेरे कैरियर में एक बिलकुल नई बात थी. ऐसा पहले मैने कभी नहीं किया था. मुझे तो उम्मीद नहीं थी कि मैं इस को आसानी से कर पाउगी. हमने स्टूडियो २ दिन का बुक कर के रखा, ये सोच कर कि पता नहीं कितने टेक लगेंगे. मुझे खुद ही हैरानी हुई कि मैने उसको एक टेक मे ही कर लिया और ये एक हैरतअंगेज़ बात थी. दूसरी बात ये कि मंजुला का किरदार यदि स्टेज पर कोई गलती करे तो वो फिक्स इमेज और प्री रिकार्डेड मालिनी जो टी वी पर है वो उसके बचाव के लिए नहीं आ सकती है. आमतौर पर नाटकों में यदि आप कोई गलती करते हैं तो आप के सहयोगी कलाकार आपका बचाव कर सकते है पर यहाँ ऐसा नहीं है. मतलब ये कि प्ले में कोई भी गलती की गुन्जाइश नहीं है, इसीलिए बहुत चुनौती पूर्ण भी है, डर भी लगता है और ज्यादा फोकस भी रहता है.
इस प्ले की मुख्य कहानी क्या है ?
ये दो बहनों की कहानी है. इस में बहनों की प्रतिद्वंदिता और उनकी जलन को दर्शाया गया है. ऊपर से वो दिखाती है कि एक दूसरे को बहुत चाहती है पर जैसे जैसे प्ले आगे बढ़ता है पता चलता है कि ये जो दिख रहा है वो सही नहीं है. अन्दर की बात तो कुछ और ही है. इस में ये समझ नहीं आता कि छोटी बहन से हमदर्दी करें या बड़ी से. जब मैने गिरीश कर्नार्ड से पूछा तो उहोने कहा मेरे पास जवाब नहीं है आप खुद ही जान लीजिये.
इस प्ले के निर्देशक पदमसी जी ने आपकी अम्मीं शौकत आज़मी जी के लिए भी प्ले का निर्देशन किया है. उनके साथ काम करना कितना इमोशनल अनुभव है?
पदमसी की ये बात है कि उन्होंने मेरी अम्मी के साथ ४० साल पहले काम किया था और आज मेरे साथ काम कर रहे है. आज भी वो बहुत लगन और मेहनत से काम करते हैं. उनका बहुत अनुभव है. वो अभिनय और थियटर को बहुत अच्छे तरीके से समझते हैं. कहते हैं कि थियटर उनके लिए ज़िन्दगी से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है तो जब आप ऐसे व्यक्ति के साथ काम करेंगे तो मजा तो आएगा ही.
आपका एक और नाटक है "कैफ़ी और मै". इस में आपने अपनी अम्मी का किरदार निभाया. अपनी माँ के जीवन को जीने का अनुभव कैसा रहा?
"कैफ़ी और मै" उर्दू का प्ले है जो जावेद जी ने लिखा है. मेरी अम्मी शौकत आज़मी की याद के बहुत से हिस्से ले कर और कैफ़ी साहब के मुख्तलिफ इन्टरवियु में से कई हिस्से ले कर, उनको जोड़-जोड़ कर जावेद साहब ने ये प्ले बनाया है. इसमें जावेद साहब मेरेअब्बा कैफ़ी साहब का रोल करते हैं और मै अपनी अम्मी का रोल करती हूँ. इस मै कैफ़ी साहब की शायरी, उनके फिल्म के गाने और उनकी जीवनी- जैसे कैफ़ी साहब और शौकत कैसे मिले, उनका रोमांस फिर उसमे हास्य और राजनीती, फिर उसमे थियटर, ये सब हैं. ये एक ऐसे दो लोगों की कहानी है जिन्होंने जिंदगी बहुत भरपूर तरीके से जी है. ये कहानी आज की नवजवान पीढ़ी के लिए प्रेरणा बन सकती है क्योंकि ये वो लोग है जिन्होंने हिंदुस्तान की आज़ादी की जद्दोजहद में हिस्सा लिया और एक ऐसी ज़िन्दगी का सपना देखा जहाँ सामाजिक न्याय हो. उन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए कला का इस्तेमाल हथियार के तौर पर किया. मेरे लिए ये प्ले नहीं कह सकती हूँ क्योंकि मै खुद को खुशकिस्मत समझती हूँ कि मेरे ऐसे माँ बाप है और इस प्ले के जरिये उनके जीवन के पहलुओं को लोगों के साथ बाँटने का मौका मिला.
इस का अंग्रेजी में तर्जुमा (अनुवाद ) हुआ है और ये अमेरिका में करिकुलम के तौर पर प्रयोग हो रहा है. इस को पढ़ के यहाँ के विद्यार्थी भी लाभ्वान्वित होंगे.
हाँ बिलकुल. इस किताब का तर्जुमा नसरीम रहमान ने किया है जो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से है. अमर्त्य सेन ने कहा है कि ये दो ऐसे इंसानों कि कहानी है जो एक दूसरे से बेपनाह मोहब्बत करते हैं, उसके साथ साथ एक अच्छे समाज का सपना भी देखते हैं और इसको अलग अलग तरीके से पूरा करने कि कोशिश करते हैं, जबकि उनकी प्रतिबद्धता एक है. "अलग-अलग व्यतित्व मगर एक ही सपना, एक ही जज्बा, एक ही उद्देश्य समाज मैं सही बदलाव का". पूरी किताब का सारांश इतने कम शब्दों में अमर्त्य ही कह सकते हैं.
आप एक प्ले को अलग-अलग शहरों और मुल्कों में करती है तो एक ही किरदार को उसी उत्साह उसी भाव के साथ बार-बार करना कितना मुश्किल हैं और कितना आसान?
ज्यादा तर तो कठिन ही होता है क्योंकी बहुत अलग किस्म के अनुशासन की जरुरत होती है. जो कलाकार है वो अपना यंत्र खुद होता है. देखिये जैसे कोई तबला बजाने वाला या सितार बजाने वाला होता है तो वो कितनी कामयाबी से बजा सकते है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि उनकी उगलियों में कितना हुनर है और उनका यंत्र कितनी अच्छी तरह समस्वरित (टीयुंड) है पर जो कलाकार है उसके पास बस उसी का ज़हन और दिल है. उस दिल में कितना अनुभव है, आपने ज़िन्दगी में क्या क्या सीखा है वो सब आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं. जब वो हिस्सा बन जाते हैं तो आप भावनात्मक रूप से समृद्ध होते है और जब ऐसा होता है तो फिर आप इस की खुशबु बिखेर सकते हैं. अपने नए नए किरदारों में इस अनुशासन को रोज़ एक नई तरह से जीने के लिए बहुत जरुरी है कि आप जब काम कर रहे हो तो आप का फोकस पूरी तरह से आपके किरदार पर होना चाहिए. यदि आपका इधर उधर ज़हन भटकने लगा इसलिए कि आप प्ले को कई बार कर चुके हैं तो उसमे एक थकान आ जायेगी और वो दर्शकों को दिखाई देगी और उनको मनोरंजक नहीं लगेगी.
कैफ़ी साहब की कोई नज़्म जो आपको बहुत पसंद हैं हमारे पढने वालों को बताइए-
जी बिलकुल एक है :-------
प्यार का जश्न नई तरह मनाना होगा
गम किसी दिल में सही, गम को मिटाना होगा
एक उनकी एक नज्म है "औरत" जो उन्होंने ६० साल पहले लिखी थी-
ज़िन्दगी ज़हद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्जे हस्ती के लहू कापते आंसू में नहीं
मुड़ने खुले में है निखत कमेगेसू में नहीं
जन्नत एक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आजाद रविश पर मचलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
जावेद जी का कोई शेर जो आप को बहुत पसंद हो
कभी तो इन्सान ज़िन्दगी की करेगा इज्जत
ये एक उम्मीद आज भी दिल में पल रही है मेरे
आपने बीबीसी टीवी के लिए २००६ में "बंगलाटाउन बैन्कवयट" किया था उसका अनुभव कैसा था ?
बहुत अच्छा अनुभव था. उसमें एक बंगलादेशी लड़की की कहानी थी जिसका शौहर बिना उससे पूछे एक नौजवान बीवी घर पर ले आता है. वो अपनी सहेलियों के साथ बाहर जाती है एक पिकनिक के लिए उस पिकनिक पर किस तरह से अपनी परिस्तिथि से जूझती है और किस तरह से उसको ताकत आती है ये हीकहानी थी. उसको कनिका गुप्ता ने लिखा था.
भविष्य में आपकी आने वाली कौन कौन सी फ़िल्में है ?
"मुक्ति", "राजधानी एक्प्रेस" और दीपा मेहता की है "टाईटेनिक वेर्सेज" जो अभी शुरू नहीं हुई है.
आप एक समाज सेविका है अपने देश की समस्याओं से आप अच्छी तरह बाकिफ है. आपको क्या लगता है कि ऐसी कौन सी समस्याएं हैं जिनको दूर कर के अपने देश को और भी आगे बढाया जा सकता है ?
मुझे ऐसा लगता है कि किसी भी देश की प्रगति का मापदंड उसकी इकोनामिक ग्रोथ नहीं हो सकती बल्कि उस देश का मानवीय विकास सबसे जरूरी है जिसमें औरतो का सशक्तिकरण एक बहुत महत्वपूर्ण मापदंड है. हमारे मुल्क में यदि हम शिक्षा और तालीम पर ध्यान दे और विशेष तौर पर लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान दें, उसकी सेहत का ध्यान रखें और सभी के लिए आमदनी का कोई जरिया हो सके, जब ये चीजे होंगी तब सही मायने में हम प्रगति करेंगे. हिदुस्तान की प्रगति दो हिस्सों में बटती जा रही है. गरीब ज्यादा गरीब हो रहा है और अमीर ज्यादा अमीर हो रहा है. गाँधी जी ने हमको सिखाया था कि तब तक प्रगति की बात नहीं कर सकते जब तक कि जो सबसे गरीब इन्सान है उसके आँख का आंसू हम नहीं पोंछ सकते.