Sunday 17 April 2011

लोक साहित्य का मर्म

विद्यावती पाण्डेय एवं रचना श्रीवास्तव 


अवधी अवध में बोली जाने वाली बोली है .इसका साहित्य अत्यंत समृद्ध है अतः इसको भाषा का दर्जा देना गलत न होगा .पूर्वी अवधी और पश्चिम अवधी के रुप मे ये  लाखों लोगों के द्वारा बोली जाती है .अवधी साहित्य भी बहुत समृद्ध है .तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस ,जायसी कृत  पद्मावत अवधी भाषा में है इसके अलावा संत कवियों में बाबा मलूकदास ,इनके शिष्य बाबा मथुरादास की बानी अवधी में हैं .अवधी के  लोकगीत भी बहुत प्रचलित हैं लोकगीत क्या है ?महात्मा गाँधी जी ने कहा था कि लोकगीत समूची संस्कृति के पहरेदार हैं  और लोकगीत का शाब्दिक अर्थ है जनमानस का गीत, जन-मन का गीत, जनमानस की आत्मा में रचा बसा गीत। ये गीत जनकंठ में ये सुरक्षित रहते हैं और पीढी-दर-पीढी विरासत में मिलते हैं।.अपने मन के भावों को जब आम जनता गीतों का रूप देती है हो लोग गीत का जन्म होता है .लोकगीतों में भारतीय संस्कृति की  गंध रची बसी होती है   लोकगीतों में स्थानीय शब्दों का समावेश  प्रचुरता में  होता है .यदि अवधी के लोकगीतों को देखें तो इसमें भक्ति, शृंगार ,वात्सल्य रसों का सुंदर चित्रण है अन्य लोकगीतों कि तरह अवधी के लोकगीतों में भी भारतीय संस्कृति का दर्पण है .जीवन के हर पहलू पर अवधी लोकगीत लिखे गयें हैं
बच्चे के जन्म पर गए जाने वाले   सोहर से ले के प्रत्येक मौसम त्योहार और जीवन के विभिन कर्मकांडों पर अवधी में लोकगीत मिल जाएँगे .

मचियाह बैठी है सासू,तो बहुरिया अरजी करे
सासू निबिया पूजें हम जाबे ओ बेरिया हमरे गमके
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मिली जुली गावे के बधइया, बधइया गाव सोहर हो
आज किशन  के होइहे जनमवा, जगत गाई सोहर हो॥
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जुग जुग जिये  ललनवा के महलवा के भाग जगे
आँगन होई गए ललनवा के महलवा के भाग जगे

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लड़के के जन्म पर बहुत खुशियाँ मनाई जाती हैं ये देख कर लड़की अपने पिता से पूछती है -
हमरे जनम कहे थरिया न बजायो
कहे न मनायो खुशियाँ हो
बेटी जनम जे मुख कुम्हलाये
बिगड़े भाग्य रमैया हो 
मुंडन एक महत्त्वपूर्ण संस्कार है बच्चे के जन्म के कुछ सालों बाद या साल भीतर ही मुंडन होता है  ।इस अवसर का गीत है ,जिसमे भाई अपनी बहन को निमंत्रण  देता है और कहता है कि बहन तुम्हारे भतीजे का मुंडन है, तुम्हें न्यौता है तुम आना जरूर -
भैया जे बहिनी से अरजि करें
बहिनी आज तोहरे भतीजवा के मुंड़न ,न्यूत हमरे आयो जरूर 
बहिनी जे भइया से अरजी करे
भइया बडरे कलाप के लपडिया तो ,चोरिया मुडायो

जनेऊ (उपनयन संस्कार )हमारी संस्कृति  का एक विशेष अवसर है माना जाता है कि इसके बाद बालक पढने के लिए गुरुकुल जाते थे -

दशरथ के चारो ललनवा मण्डप पर सोहे - 2
कहा सोहे  मुन्ज के डोरी ,कहा सोहे  मृग  छाला
कहा सोहे  पियरी जनेऊवा,मण्डप पर सोहे
दशरथ के चारो ललनवा, मण्डप पर सोहे
हाथ सोहे  मुंज के डोरी ,कमर म्रिगछाला
देह सोहे  पियरी जनेऊवा,मण्डप पर सोहे


राम के वन जाने पर माता कौशल्या सोच रही है कि राम-लक्ष्मण जंगल में रहेंगे कहाँ-
कौन गाछतर आसन वासन कौन गाछतर डेरा
फिर उत्तर स्वयं ही सोचकर थोडा आश्वस्त होती हैं:
 कदम गाछतर आसन-वासन ,नीम गाछतर डेरा।   
भारतीय संस्कृति के चार आश्रमों में  से एक है गृहस्थ आश्रम .ग्रस्त आश्रम में  प्रवेश करने के किये विवाह का होना अनिवार्य था ,विवाह में बहुत सी रीतियाँ होती थी ;आज भी होती हैं ,पर समय की कमी के कारण कुछ कम होती हैं .
जैसे- देखिए विवाह योग्य बेटी अपने पिता से कहती है -मै बहुत सुंदर हूँ ।मेरे लायक ही बर खोजना और मेरा विवाह करना-
सेनुरा बरन हम सुन्दर हो बाबा, इंगुरा बरन चटकार हो
मोतिया बरन बर खोजिहा हो बाबा, तब होइ हमरा बियाह हो
 
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घुमची बरन हम सुंदर बाबा भुनरी बदन कटियार
 
हमही बरन बर ढूढो बाबा तब मोरह रचियों विवाह
 
पिता सोचता है मैने सब कुछ इकठा किया है आज वो (बाराती )सब ले जा रहे हैं
 
मोरे पिछड़वाँ लौंगा के पेडवा,लौंगा चुये आधी रात
 
लौंगा मै चुन बिन ढेरियाँ लगयों ,लादी चले हैं  बंजार 
 
बेटी अपने पिता से कहती है की गर्मी में  मेरा विवाह मत करना सभी प्यासे मरेंगे और मेरा गोरा बदन कुम्हला जायेगा
 
बेटिया की बेटिया मै अरजों बाबा ,जेठ जनि रचिहौं विवाह
 
हाथी से घोरवा प्यासन मरिहैं ,होरा बदन कुम्हलाय
विवाह की एक रीत है तिलक जिसका वर्णन इस गीत मै बहुत सुंदर तरीके से किया गया है .देखने वाली बात ये हैं की राम जैसे समृद्ध राजा के लिए भी तिलक कम है का उलाहना माता कौशल्या राजा जनक को दे रही हैं
 
सगरी अयोध्या में  राम दुलरवा ,तिलक आई बड़ी थोर
 
भीतर से बोली रानी कौशल्या ,सुनो राजा दशरथ बचनी हमार.
बेटी कि बिदाई गीत का मर्म देखिये
 
एक बन गईं दुसरे बन गईं तीसरे बबिया बन
 
बेटी झलरी  उलटी जब चित्वें तो मैया के केयू नाही
 
लाल घोड़ चितकबर वेंसे वे पिया बोलेन ,
हमरे पतुक आंसू पोछो मैया सुधि भूली जाव
माँ कहती है बेटी तुम इतनी दूर हो तुमको कौन लेने जायेगा तो बेटी कहती है कि मेरा भाई मुझको लेने आएगा
 
का हो बेली फुलाल्यु इतनी दूरियां केना तुन्हें लोढं जैह्यें
 
मालिया के कोर्वन मालानी छोकरवा वही हममें लोधन जईहें
 
विवाह के बाद भी बेटी  के माता पिता चिंता मै रहते हैं की पता नहीं बेटी कैसी होगी पिता पूछते हैं बेटी कहो तुम कैसी हो ?
   बाबा जे बेटी बुलावें जांघ बैठावे
 
बेटी कौन कौन  सुख पायु हमसे  कहो अर्थाये
 
सोने के पलंगिया बाबा हमरा सेजरिया दुधवा हमरा स्नान
 
सोने  कटोरवा बाबा हमरा भोजनवा,भुईन्या मै लोढऊं अकेल
 
इस लोकगीत में नन्द, भाभी कि नोकझोक का सुंदर वर्णन है भाभी पूछती है हे नन्द तुम किस के लिए आई हो जो मेरे घर में बैठी हो .तो नन्द कहती है कि भाभी में भैया के लिए आयीं हूँ
 
हीलत  नंदा आइन कंपतक नंदा आइन  बेसरा झुलावत आइन हो
 
नन्दा केकरे गुमाने चली आयू  दुअरिया चढ़ के  बैईठियु हो
 
हीलत  नंदा आइन कंपतक नंदा आइन  बेसरा झुलावत आइन हो
 
भौजी भैया गुमाने चली आंयों दुअरिया चढ़ के बैईठियों हो
 
प्रत्येक भारतीय संस्कार प्रारंभ होता है भगवान की आराधना से देवी की पूजा से .
लागत चैईत महिनवा ,देवी ज़ी आई गई भवनवा
 
मईया  के मांगिय लाल लाल सेंदुर ,चम् चम् चमके टिकुलिया
 देवी ज़ी आई गई भवनवा
 
होली में  देवी ज़ी को किस रुपमे देखते हैं उसका सुन्दर उदाहरण है
 
अब होलिया मै उड़त है गुलाल मईया  के रंग सतरंगी
 
सेनुर भीगे बिन्दिया भीगे चेहरा है लालम लाल
 
 मईया  के रंग सतरंगी
 

लोकगीतों में जीवन के हर पहलू की झलक मिलती है .संस्कारों की मोहकता से सराबोर ये लोकगीत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी वसीहत की तरह सौपे जाते हैं .ये गीत कब से गाये जाते हैं कहना कठिन है पर मै कह सकती हूँ कि इनका रूप चाहे बदल जाये पर ये गीत रहती दुनिया तक महकते  रहेंगें .भारतीय संस्कारों को धरोहर के रूप में  सजोये ये गाँव गाँव शहर शहर गाये जाते रहेंगे .
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