Friday 23 January 2015



चहुँ  ओर छाया कुछ कोहरा सा है
हथेलियों पर थिरकता है
पलकों  से लिपटता है
ओस  में भीग के
 स्वयं में सिमटता है
ह्रदय दर्पण में सोया एक चेहरा सा है
चहुँ  ओर छाया कुछ कोहरा सा है

शब्द ताखे से  उतरते नहीं
गेसू हवा में बिखरते नहीं
आँखों की ढिबरी में जलता है
पर काजल बन उन में सजता नहीं
क्यों छलकता नहीं लब पर जो ठहरा सा है
मेरे चहुँ  ओर छाया कुछ कोहरा सा है

चांदनी जब  उतरती है
चाँद की हसीं तभी बिखरती है
देख सुन्दरता लजाती है धरती
सकुचा के ड़ाल से लिपटती है
चमक जाता है मौसम जो हरा हरा सा है
चहुँ  ओर छाया कुछ कोहरा सा है

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