Wednesday 21 May 2014





मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा : आलोक श्रीवास्तव

अपनी ग़ज़लों में मानवीय रिश्तों के चित्र उकेरने वाले भारत के प्रसिद्ध ग़ज़लकार आलोक श्रीवास्तव पेशे से टीवी पत्रकार हैं. आलोक जी की पुस्तक 'आमीन' हिंदी कविता की सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तकों में शुमार की गई है जिसे साहित्य के अनेक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिल चुके हैं। आलोक, हिंदी पट्टी के ऐसे इकलौते युवा ग़ज़लकार हैं जिनकी गीतों-ग़ज़लों को ग़ज़ल-सम्राट जगजीत सिंह, पंकज उधास, तलत अज़ीज़, शुभा मुद्गल से लेकर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन तक ने अपनी आवाज़ दी है. पिछले दिनों प्रसिद्ध सितार वादिका अनुष्का शंकर के एलबम ट्रैवलर में भी उनका गीत शामिल किया गया जिसे ग्रैमी अवॉर्ड में नॉमिनेशन मिला. इन दिनों आलोक श्रीवास्तव अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति की ओर से अमेरिका की साहित्यिक-यात्रा पर हैं. इसी दौरान मुझे इस सहृदय और विनम्र कवि से बात करने का मौका मिला. गौरतलब है की अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति की स्थापना सन् १९८० में डॉ. कुँवर चन्द्र प्रकाश सिंह ने की थी; तब से आजतक लोग आते गए और कारवाँ बनता चला गया। कवि सम्मेलनों की मशाल डॉ. सुधा ओम ढींगरा, डॉ. नन्दलाल सिंह और श्री अलोक मिश्रा जी के हाथों में है। १९८० से ये समिति अमेरिका में हिन्दी के प्रचार- प्रसार का कार्य कर रही है। प्रस्तुत है आलोक श्रीवास्तव जी से की गई बातचीत के कुछ अंश -

अपने बारे में कुछ बताइये. शब्दों को ग़ज़लों में ढालने का सिलसिला कब और कैसे शुरू हुआ ?

आंखें खुलीं तो ख़ुद को साहित्यिक-परिवार में पाया. बड़े भाई लिखते-पढ़ते थेl मां साहित्यसुधी थींl माहौल मिला तो मैंने भी लिखना-पढ़ना शुरू कर दियाl कोई बीस बरस की उम्र में पहली ग़ज़ल कही थी - 

जब भी तक़दीर का हल्का सा इशारा होगा,/आसमां पर कहीं मेरा भी सितारा होगा.
दुश्मनी नींद से करके मैं बहुत डरता हूं,/अब कहां पर मेरे ख़्वाबों का गुज़ारा होगा.

ग़ज़ल लिखने के इतने नियम होते हैं बहर होती है। नियमों में बांध कर भावों के साथ न्याय कैसे कर लेते हैं आप। 
(रदीफ़ और काफ़िया मिलाना तो आसान है पर बहर का निर्वाह बहुत ही कठिन है ऐसा मुझे लगता है )

साध लीजिए तो सब सध जाता है. वैसे मैं आज भी ख़ुद को ग़ज़ल की क्लास का सबसे कमज़ोर विद्यार्थी ही पाता हूं. 
मेरे लिए भाव ज़्यादा मायने रखता हैं. उसमें ग़ज़ल का तमीज़ और आ जाए तो क्या कहने.

आमीन आपका ग़ज़ल संग्रह है। इसकी शुरुआत कैसे हुयी ? इसके बारे में बताइये प्लीज। 
इस संग्रह को इतनी लोकप्रियता मिली, इतने पुरस्कार मिले। आपको कैसा लगा ? क्या आपको लगा था की आमीन को इतनी सफलता मिलेगी ?

सच पूछिए तो मुझे यही भरोसा नहीं था कि मेरा यह संग्रह कभी छप भी पाएगा. तीन प्रकाशकों ने महीनों घुमायाl  दो बड़े प्रकाशकों ने अप्रत्यक्ष रूप से मना कियाl बहुत निराश हुआl आख़िरकार तीन साल की लंबी प्रतीक्षा के बाद जब 'राजकमल प्रकाशन' से संग्रह छप कर आया तो इंतज़ार की सारी थकान उतर गईl 

हर लेखक और शायर का कोई न कोई प्रेरणा श्रोत होता है l आपका प्रेरणा श्रोत कौन है ? आप अपनी सफलता का श्रेय किसको देना चाहेंगे। 

मां. मेरी मां मुझे कवि रूप में देखना चाहती थीं. उनका बड़ा मन था कि स्थापित कवियों में मेरा शुमार हो. मैं आज जो कुछ हूं उन्हीं की सदा और दुआ से हूं. मेरे शेर हैं - 

न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है/ख़ुद अपने आपको नींदों में चलते मैंने देखा है. 
मुझे मालूम है उसकी दुआएँ साथ चलती हैं,/सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते मैंने देखा है.


आपकी ग़ज़लों और गीतों में मानवीय रिश्तों को बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति होती है। रिश्तों पर लिखने का कोई खास कारण। 

रिश्ते सदा से मुझे लुभाते रहे हैं. प्रेरित करते रहे हैं. संयुक्त परिवार में परवरिश के कारण मैंने रिश्तों के खट्टे-मीठे अनुभव बहुत क़रीब से जीए. वही ग़ज़लों और गीतों में आते गए. परिवार में खटपट होती थी, नज़र आती थी. लेकिन मां कब उस खटपट को प्यार में बदल देती थीं, पता ही नहीं चलता था. मैंने शेर कहे थे - 

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे,/चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा.
बाबूजी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुईं तब/मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा.

आफरीन आपका कहानी संग्रह है। इसके बारे में कुछ बताइये। क्या चीज आपको कहानी लिखने की प्रेरणा देती है?
कहानियां ज़िंदगी की दास्तानें भर हैं. वही जो देखा. महसूस किया, लिख दिया. आफ़रीन के प्रकाशन के का श्रेय हिंदी आलोचना के प्रतिमान, आदरणीय बाबूजी नामवर सिंह जी को जाता है, उन्होंने और वरिष्ठ पत्रकार, मेरे अग्रज हेमंत शर्मा जी ने हौसला बढ़ाया तभी आफ़रीन आप सबके सामने आ सकी. ये कहानियां दरअस्ल मेरी ग़ज़लों का ही विस्तार हैं.  

आप बहुत से लोगों के पसंदीदा शायर है पर आपको कौन से शायर पसंद हैं ?

अपने क्लासिक्स में ख़ुसरो, कबीर, ग़ालिब को ख़ूब पढ़ा और उनके बाद फ़ैज़, फ़िराक़, कैफ़ी, साहिर, सरदार जाफ़री, गुलज़ार, निदा फ़ाज़ली, दुष्यंत कुमार और बशीर बद्र साहब की शायरी ख़ूब पढ़ी. आज भी जब मौक़ा लगता है. पढ़ता हूंl

आपके लेखन की तारीफ बहुत बड़े बड़े लेखकों और शायरों ने की है। पर तारीफ के ऐसे कौन से शब्द हैं जो आपको हमेशा प्रेरणा देते हैं ?

डॉ. नामवर सिंह जी का कथन - 'दुष्यंत की परंपरा का आलोक.' कभी नहीं भूलता. गुलज़ार साहब की दुआ याद रहती है - 'आलोक एक रोशन उफ़क़ पर खड़ा है, नए उफ़क़ खोलने के लिएl आमीन.' कमलेश्वर जी की लिखी आमीन की भूमिका का एक-एक शब्द किसी दुआ से कम नहींl
आपने संपादन कार्य भी किया है। नई दुनिया को सलाम : अली सरदार जाफ़री ,अफ़ेक्शन : डॉ. बशीर बद्र ,हमक़दम : निदा फ़ाज़ली लॉस्ट लगेज : डॉ. बशीर बद्र। इस कार्य को करने के बारे में आपने कैसे सोचा ?

ग़ज़ल शुरू से ज़िंदगी का हिस्सा रही. ये तमाम मेरे पसंदीदा शायर हैं. मौक़ा मिलता गया और इनकी शायरी पर किताब बनती गईं. यूं भी उर्दू के मशहूर शायरों की ग़ज़लों का इंतख़ाब कर, उन्हें किताबों की शक्ल देने का अनुभव, अपने तआरुफ़ में किसी सम्मान की तरह दर्ज करता हूं. मुझे लगता है कि इससे मैंने थोड़ा ही सही, उर्दू के ज़रिए हिंदी के ख़ज़ाने को थोड़ा-बहुत तो सम्पन्न किया ही है. 

आपने मंच पर कविता पाठ कब शुरू किया ?

कोई बीस बरस पहले, पहली बार मंच पर कविता-पाठ किया था. लेकिन फिर बीच में डोर टूट गई. मगर अब क़रीब पंद्रह बरस से लगातार मंचों पर जा रहा हूं.
हिंदी शायरी और उर्दू शायरी कितनी सामान है और कितनी भिन्न। 

मौसेरी बहनें हैंl

अभी यहाँ आपको सम्मानित किया गया है आप क्या कहेंगे ?

हिंदी ग़ज़ल सरहदों की देहरी लांघ कर ख़ुद को मनवा रही हैl अच्छा लग रहा हैl

टीवी पत्रकारिता और साहित्य दोनों के साथ आप कैसे इतना न्याय कर पाते हैं ?

नटनी-सा चलना पड़ता है रस्सी पर, चलता रहता हूंl जब नहीं चल पाऊंगा तो छपाक से साहित्य की तरफ़ कूद जाऊंगाl


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1 comment:

  1. बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ
    रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनायें...

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